Naam Deeksha

Naam Deeksha

A Spiritual Master (the Enlightened One), like the Pole Star, guides the Ship of Life. Life without a true Spiritual Master is Life gone waste. In ‘Shree Ram Sharnam’, the Enchanted Mantra which dawned upon Swami Satyanandji on Guru Poornima in 1925 at Param Dham Dalhousie is the Seed Mantra, the Ram Mantra. Swami Ji started giving Deeksha in 1928.In Shree Ram Sharnam, Deeksha is based strictly on the lines of Swami Ji.

Gurudev Pujya Swami Satyanand Ji Maharaj in his lifetime, ordained Pujya Bhagat Hansraj Ji Maharaj (Bade Pitaji) to spread the name of God, and give Deeksha. When Swami Ji Maharaj graced Bade Pitaji Maharaj, he asked Bade Pitaji to give Deeksha to the deserving ones, as this seed of “Ram Naam” once sowed in the subconcious is bound to sprout and frucitfy. In the Holy tradition, Pujya Bade Pitaji Maharaj futher passed on the responsibility of spreading the name of God to Pujya Shree Krishan Ji and Pujya Rekha Ji on 16th July, 2000, the most auspicious day of Guru Poornima.

And on 31st December, 2000 Pujya Bade Pitaji Maharaj ordained both Pujya Shree Krishan Ji and Pujya Maa Rekha Ji to Vidhivat give Naam Deeksha. Since then, Pujya Krishan Ji and Pujya Rekha Ji have been giving Deeksha to initiate the seekers. The milling crowds of Sadhaks indicate the spiritual hunger and thirst. Our Gurujans are spreading Ram Naam on the pristine lines of Swami Satyanand Ji at Shree Ram Sharnam Gohana and various Prarthana Sthals in India and Abroad. Naam Deeksha is usually schduled at various Shree Ram Sharnams when Pujya Gurujans are gracing the satsangs.

Swamiji’s Methodology

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The way ‘Naam Deeksha’(initiation) is given and received in our satsangs is mystical in nature. In this particular way of Naam Deeksha , the Name or the Word, (Ram Naam) is a living and wake-up Mantra which is subtly placed in the subconscious mind of a person. That is why, the veneration of this Mantra is considered to be more comforting, more pleasurable and more fruitful than other spiritual practices.

In this discipline, ‘Shree Ram’ Himself is the guide who helps the disciple as ‘He’ himself is the Founder Lord of this Mantra. A person reciting the ‘holy mantra’ must develope a resolute faith that as he recites the mantra he is taking himself closer to Shree Ram (The Lord) and is gradually becoming a subject of His Grace. A disciple who recites the Mantra with this conviction will ultimately become one with the Brahm (the Celestial).

All the aspects of spiritual growth are present in the Mantra exactly in the same manner as the entire configuration of a tree is present within a small seed. Once the seed of Naam is sown, the process of internal growth begins to take place on its own. It is not at all a devotee’s concern to worry about the level of progress that he makes during his spiritual endeavor. His task is only to concentrate on the rumination of the Mantra (Jaap) with deepLove & Devotion. Because the ultimate responsibility of his spiritual growth lies with the Lord of the Mantra as ‘He’ Himself is the presiding Lord of the Mantra.

Bestowal of Guru Mantra

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At the time of initiation there are no preconditions or restrictions imposed on the devotee. The only factor that matters is that the devotee should have faith in God, his benevolence and that he should keep himself beyond all whims, superstitions and fears.

The holy Word is revealed and installed in the hearts of the Deeksha-aspirants. The methodology or process of daily practice of Simran(Repeating the Holy Name or Jaap) and Dhyana (Rumination and Meditation) is explained in simple and clear terms. Mala(a woolen string of beads) and a copy of Amritvani (a spiritual primer) are handed over to all the recipients of Deeksha.

The Word or the Name becomes pivotal in the life of the Sadhak. Just as a plant bears fruit as a result of the cojoining of water, soil and climate, similarly a Sadhak, too, makes a step-by-step progress towards Spiritual Growth. A total dedication, a singular love, a firm belief, an unshakeable faith in God and above all a Sat-Guru(True Spiritual Guide) are essential for the descent of Ram Kripa (Grace of God). The initiated devotee must undertake Jaap most vigorously and dedicatedly.

दीक्षित साधकों के लिये

दीक्षित साधक
प्रारम्भिक छः मास का काल

श्री महाराज के कथनानुसार नवीन साधकों के लिये प्रथम छः मास का काल गुरू-कृपा का समय होता है। इसी काल में गुरू-कृपा से ‘‘राम-कृपा’’ का अवतरण साधक पर होता है। इस कृपा को साधन के द्वारा और बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिये।
उसी समय साधक को कृपा-स्वरूप् जो भी उपलब्धियाँ तथा अनुभूतियाँ होती हैं, वह आध्यात्मिक लाभ है। अतः साधक उस समय अपने-आपको सम्भाल कर रखे, सिकोड़ कर रखे, व सम्पर्क बनाये रखे।

सम्भाल कर रखे- साधक धैर्य रखे, डांवाडोल व भ्रमित न हो। अपनी अनुुभूतियों की गुरू के अलावा अन्यत्र चर्चा न करे।
सिकोड़ कर रखे- वह प्रदर्शन न करे। अपनी साधना का जहाँ तहाँ बखान न करे व डींग न मारे।
सम्पर्क बनाये रखे- अपने मार्गदर्शक से समय-समय पर मिलता रहे। पत्र द्वारा भी सम्पर्क रखकर मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है।

इस प्रकार उपरोक्त सावधानी न रखने से साधक मिलने वाले लाभ से वंचित रह सकता है। उसे जो उपलब्धि हुई है, वह भी कम हो सकती है। भोजन करने में कम समय लगता है लेकिन पचाने में अधिक समय लगता है। किन्तु वमन (उल्टी) करने में कुछ ही क्षण लगते है। इसी प्रकार दीक्षा लेने में कम समय लगता है। पचाने की क्रिया की भांति उसे ह्नदयंगम करने में अधिक समय लगता है। कृपा का प्रदर्शन करके, चर्चा करके, वमन (उल्टी) करने की भांति कम समय में ही साधक अपनी प्राप्त शक्ति गंवा देता है।

साधना सत्संग

नवीन साधक को दीक्षा लेने के पश्चात् कम से कम एक बारा तो साधना-सत्संग में अवश्य सम्मिलित होना चाहिये।
श्री स्वामी जी महाराज ने दीक्ष्क्रि साधकों की उन्नति हेतु उन्हें सिधाने के लिये ‘‘साधना-सत्संग’’ शिविर लगाने आरम्भ किये, जो साधकों के लिये उनकी अनुपम देन है।
समय समय पर ये साधना सत्संग विभिन्न स्थानों पर लगाये जोते है, जहां साधक कुछ समय के लिए सांसारिक बंधनों से हटकर व परिवार से दूर जाकर क्रियात्मक ;चतंबजपबंसद्ध साधना करते है। इससे उनकी उन्नति के मार्ग की बाधायें दूर होती हैं। यह एक पाठशाला के समान है। जहां वे अनुशासन व नियमेां का पालन करना सीखते है, साथ ही भजन करने का स्वभाव बनाते है। ‘‘युक्ताहार विहारस्य, युक्त चेष्टस्य कर्मषु’’ के अनुसार जीवन बनाते है।
ये साधना-सत्संग बड़े ही महत्वपूर्ण होते हैं। कुछ दिन गुरू के सम्पर्क में रहने से वर्ष के बाकी समय के लिये सार्थक जीवन जींने की कला सीखने की मिलती है, जो हमारे व्यवहारिक जीवन के लिर्माण में सहायक होती है।
यहां से ही हम स्वच्छता, नियमितता, शिष्टाचार, सेवा, संयम, विनम्रता आदि मानवीय गुण सीखते हैं अर्थात् हम सच्चे मानव बनने की ओर अग्रसर होते हैं। हमारी दिनचर्या साधना-सत्संग के अनुसारा होनी चाहिये। साधना-सत्संग भारत के कई प्रान्तों में आयोजित होते है। मुख्यतः श्री राम शरणम् डल्हौजी, गोहाना, हरिद्वार, अबोहर, फाजिल्का, अमृतसर, जालन्धर, लुधियाना, नोयडा, मुम्बई, पालमपुर, राँचि आदि नगरों में साधना सत्संग आयोजित होते हैं।

ध्यान

एक वैज्ञानिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। ध्यान से विवेक जाग्रत होता है, मन एकाग्र होता है व बुद्धि निर्मल होती है। साधक आत्मिक-प्रसन्नता व शान्ति का उत्तरोत्तर लाभ प्राप्त करता है। ध्यान द्वारा ही आत्मा-परमात्मा का मिलन होता है।
अंत नवीन साधक को नित्य प्रातः व सायंकाल नियत समय पर ध्यान में अवश्य बैठना चाहिये। प्रारम्भ में वह 15 मिनट तक बैठे। धीरे-धीरे यह समय 30 मिनट तक बढ़ा लेना चाहिये। दीक्षा के समय जो धन की विधि बताई जाती है या जिस विधि से ध्यान कराया जाता है, उसी विधि से ध्यान करना चाहिये। ध्यान करने के पूर्व श्री अधिष्ठान जी के सम्मुख बैठकर परमेश्वर का आह्नान करने हेतु नमस्कार-सप्तक बोलकर ध्यान में बैठना चाहिये एवं समाप्ति पर भी परमेश्वर को नमस्कार करके उठना चाहियें।

जाप

श्री स्वामी जी महाराज के अनुसार प्रत्येक साधक को प्रतिदिन दस हजार से कुछ अधिक राम-नाम का जाप करना चाहिये। नये साधक को अपनी सुविधा के अनुसारा नाम-जाप क संख्या नियत करनी चाहिये। कालान्तर में 10-12 हजार तक व उससे अधिक संख्या बढ़ा लेनी चाहिये। जाप चलते फिरते, बैठे हुये अथवा काम-काज करते हुये भी किया जा सकता है अर्थात् ‘‘मुखा में राम-हाथ में काम।’’

पाठ

साधकों को अमृतवाणी का नित्य पाठ करना चाहिये। नित्य पाठ से संकट तथा विपदाओं का निवारण होता है तथा शुभ-मंगल का संचार होता है। ‘‘स्थितप्रज्ञ के लक्षण’’ व ‘‘भक्ति व भक्त के लक्षण’’ का नित्य पाठ करने से लाभ प्राप्त होता है। ‘‘प्रार्थना और उसका प्रभाव’’ पुस्तक को भली भांति मनन पूर्वक जीवन में उतारना चाहिए।

स्वाध्याय

गीता, रामायण आदि सद्ग्रन्थों का भ्ीाावना से स्वाध्याय करते रहना चाहिये। स्वाध्याय से अपने साधन की जानकारी प्राप्त होती है। साधन करने में रूचि बढ़ाती है। स्वाध्याय व मनन के लिये अपनी दिनचर्या में कम से कम 10 मिनट का समय तो अवश्य नियत करना चाहिये।

अनन्य-भाव

साधक को श्री राम के प्रति एवं अपने गुरूजनों व उनके पथ के प्रति अटूट श्रद्धा व विश्वास होना चाहिये। साथ ही समर्पण का भाव होना भी आवश्यक है। साधक को एक इष्ट, एक गुरू, एक मन्त्र, एक पथ, एक विधि, तथा एक साधन पर दृढ़ रहना चाहिये।

सत्संग

साधक को सथानीय साप्ताहिक, दैनिक व विशष सत्संगो में यथासम्भव सम्मिलित होते रहना चाहिये, जिससे वह साधन से जुड़ा रहे। इन सत्संगों से ही नवीन प्रेरणा तथा उत्साह प्राप्त होता है, श्रद्धा व विष्वास बढ़ता है, मन की शान्ति प्राप्त होती है एवं तनाव दूर होता है।

सहज मार्ग

श्री स्वामी जी महाराज की ‘‘राम-नाम’’ की उपासना बड़ी सुखद, सुलभ, सुगम और अधिक फलदायक है। इसमें घर-परिवार व काम-धन्धों का त्याग नहीं किया जाता है। गृहस्थ-जीवन में रहकर सभी कत्र्तवय-कर्म करते हुये साधना की जाती है।

राम-कृपा

हमें बड़े ही भाग्य से दुर्लभ मानव-जन्म मिला है। जब सौभाग्य का सूर्य उदय होता है तभी राम-कृपा होती है और सत्संग मिलता है, तब सच्चे सन्त का मिलाप होता है जो करूणा करके हमारे कल्याण के लिए भक्ति-योग प्रदान करते हैं। यह सब ‘‘श्री राम-कृपा’’ का सुफल ही मानना चाहिये।

अखण्ड जाप

श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने अखण्ड जाप की महत्ता के बारे में बताया है कि अखण्ड जाप जिस कमरे में होता है वहाँ जाते ही शान्ति प्राप्त होती है। शब्द के संस्कार उस कमरे में पूर्ण हो जाते है। अखण्उ जाप का उद्देश्य हैः

वृ़द्धि आस्तिक भाव की, शुभ मंगल संचार।
अभ्युदय सदृधर्म का, राम नाम विस्तार।।

अर्थात् जगत में आस्तिक भाव की वृद्धि हो, सुख-शान्ति हो, लोगों का जीवन मंगलमय हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए गोहाना स्थित श्री राम शरणम् आश्रम में प्रति वर्ष 90 दिनों का अखण्ड जाप दिसम्बर के मध्य से आरम्भ होकर मार्च के मध्य तक चलता है जिसमें हजारों साधक हिस्सा लेते है। इन दिनों अखण्ड ज्योति (जो मि व्यास पूर्णिमा सन् 2000 को प्रज्वलित की गई थी) के साथ-साथ पूज्य पिताजी भी आश्रम में ही रहते है और तीन ताप से तप्त लोगों को राम नाम की मरहम लगा कर निहाल करते है।

चार दोष

प्रेम पथ पर पदार्पण करने वाले प्रेमियों को चाहिए कवे चार दुष्ट दोषों को त्याग दें, उन में से-

एक मदिरापान है। उपासक को इससे बचने रहना उचित है।
दूसरा व्यभिचार है। भगवद् भक्तों में यह दोष नहीं होना चाहिए।
तीसरा पर पदार्थ अपहरण है। यह कुकर्म भक्ति धर्म में बड़ा बाधक माना गया है।
चैथ असत्य दोष है। सत्य के उपासक में मिथ्या भाषण, वचन-भंग, प्रण प्रतिज्ञा को तोड़ना तथा सत्य को लोप कर देना कदापि नही होना चाहिए।
सप्त साधन

प्रेमरूप परमेश्वर के उपासक को सप्त साधन प्रतिदिन करने चाहिये-

प्रथम साधन स्नान, व्यायाम तथा स्वच्छ रहना है।
दूसरा पवित्र पाठ करना है।
तीसरा साधन सत्संग है।
चैथा राम नाम का पतित पावन पुण्यमय जाप है।
पाँचवा राम-प्रेम का प्रचार है। हरि गीत गा कर प्रेम पूर्ण पदों का पाठ सुना कर तथा हरि चर्चा चला कर दूसरे जनों में श्री राम के पवित्र प्रेम को उत्पन्न करना प्रेम-प्रचार है।
छठा साधन उपासकों से, भगवद् भक्तों से प्रीति पूर्वक बर्ताव है।
सतवाँ साधन जन-सेवा और सहायता है।

ऊपर कहे सात साधन साधकों के लिए सवर्ग के सोपान हैं, सुख के सोत हैं और प्रेम पथ में पूरे सहायक है।